1

1 यरूशलेम के राजा, दाऊद के पुत्र और उपकेशक के वचन। 2 उपकेशक का यह वचन है, कि व्यर्य ही व्यर्य, व्यर्य ही व्यर्य! सब कुछ व्यर्य है। 3 उस सब परिश्र्म से जिसे मनुष्य धरती पर करता है, उसको क्या लाभ प्राप्त होता है? 4 एक पीढ़ी जाती है, और दूसरी पीढ़ी आती है, परन्तु पृय्वी सर्वदा बनी रहती है। 5 सूर्य उदय होकर अस्त भी होता है, और अपके उदय की दिशा को वेग से चला जाता है। 6 वायु दक्खिन की ओर बहती है, और उत्तर की ओर घूमती जाती है; वह घूमती और बहती रहती है, और अपके चक्करोंमें लौट आती है। 7 सब नदियां समुद्र में जा मिलती हैं, तौभी समुद्र भर नहीं जाता; जिस स्यान से नदियां निकलती हैं; उधर ही को वे फिर जाती हैं। 8 सब बातें परिश्र्म से भरी हैं; मनुष्य इसका वर्णन नहीं कर सकता; न तो आंखें देखने से तृप्त होती हैं, और न कान सुनने से भरते हैं। 9 जो कुछ हुआ या, वही फिर होगा, और जो कुछ बन चुका है वही फिर बनाया जाएगा; और सूर्य के नीचे कोई बात नई नहीं है। 10 क्या ऐसी कोई बात है जिसके विषय में लोग कह सकें कि देख यह नई है? यह तो प्राचीन युगोंमें वर्तमान यी। 11 प्राचीन बातोंका कुछ स्मरण नहीं रहा, और होनेवाली बातोंका भी स्मरण उनके बाद होनेवालोंको न रहेगा।। 12 मैं उपकेशक यरूशलेम में इस्राएल का राजा या। 13 और मैं ने अपना मन लगाया कि जो कुछ सूर्य के नीचे किया जाता है, उसका भेद बुद्धि से सोच सोचकर मालूम करूं; यह बड़े दु:ख का काम है जो परमेश्वर ने मनुष्योंके लिथे ठहराया है कि वे उस में लगें। 14 मैं ने उन सब कामोंको देखा जो सूर्य के नीचे किए जाते हैं; देखो वे सब व्यर्य और मानो वायु को पकड़ना है। 15 जो टेढ़ा है, वह सीधा नहीं हो सकता, और जितनी वस्तुओं में घटी है, वे गिनी नहीं जातीं।। 16 मैं ने मन में कहा, देख, जितने यरूशलेम में मुझ से पहिले थे, उन सभोंसे मैं ने बहुत अधिक बुद्धि प्राप्त की है; और मुझ को बहुत बुद्धि और ज्ञान मिल गया है। 17 और मैं ने अपना मन लगाया कि बुद्धि का भेद लूं और बावलेपन और मूर्खता को भी जान लूं। मुझे जान पड़ा कि यह भी वायु को पकड़ना है।। 18 क्योंकि बहुत बुद्धि के साय बहुत खेद भी होता है, और जो अपना ज्ञान बढ़ाता है वह अपना दु:ख भी बढ़ाता है।।

2

1 मैं ने अपके मन से कहा, चल, मैं तुझ को आनन्द के द्वारा जांचूंगा; इसलिथे आनन्दित और मगन हो। परन्तु देखो, यह भी व्यर्य है। 2 मैं ने हंसी के विषय में कहा, यह तो बावलापन है, और आनन्द के विषय में, उस से क्या प्राप्त होता है? 3 मैं ने मन में सोचा कि किस प्रकार से मेरी बुद्धि बनी रहे और मैं अपके प्राण को दाखमधु पीने से क्योंकर बहलाऊं और क्योंकर मूर्खता को यामे रहूं, जब तक मालूम न करूं कि वह अच्छा काम कौन सा है जिसे मनुष्य जीवन भर करता रहे। 4 मैं ने बड़े बड़े काम किए; मैं ने अपके लिथे घर बनवा लिए और अपके लिथे दाख की बारियां लगवाई; 5 मैं ने अपके लिथे बारियां और बाग लगावा लिए, और उन में भांति भांति के फलदाई वृझ लगाए। 6 मैं ने अपके लिथे कुण्ड खुदवा लिए कि उन से वह वन सींचा जाए जिस में पौधे लगाए जाते थे। 7 मैं ने दास और दासियां मोल लीं, और मेरे घर में दास भी उत्पन्न हुए; और जितने मुझ से पहिले यरूशलेम में थे उस ने कहीं अधिक गाय-बैल और भेड़-बकरियोंका मैं स्वामी या। 8 मैं ने चान्दी और सोना और राजाओं और प्रान्तोंके बहुमूल्य पदार्योंका भी संग्रह किया; मैं ने अपके लिथे गवैयोंऔर गानेवालियोंको रखा, और बहुत सी कामिनियां भी, जिन से मनुष्य सुख पाते हैं, अपक्की कर लीं।। 9 इस प्रकार मैं अपके से पहिले के सब यरूशलेमवासिक्कों अधिक महान और धनाढय हो गया; तौभी मेरी बुद्धि ठिकाने रही। 10 और जितनी वस्तुओं के देखने की मैं ने लालसा की, उन सभोंको देखने से मैं न रूका; मैं ने अपना मन किसी प्रकार का आनन्द भोगने से न रोका क्योंकि मेरा मन मेरे सब परिश्र्म के कारण आनन्दित हुआ; और मेरे सब परिश्र्म से मुझे यही भाग मिला। 11 तब मैं ने फिर से अपके हाथोंके सब कामोंको, और अपके सब परिश्र्म को देखा, तो क्या देखा कि सब कुछ व्यर्य और वायु को पकड़ना है, और संसार में कोई लाभ नहीं।। 12 फिर मैं ने अपके मन को फेरा कि बुद्धि और बावलेपन और मूर्खता के कार्योंको देखूं; क्योंकि जो मनुष्य राजा के पीछे आएगा, वह क्या करेगा? केवल वही जो होता चला आया है। 13 तब मैं ने देखा कि उजियाला अंधिक्कारने से जितना उत्तम है, उतना बुद्धि भी मूर्खता से उत्तम है। 14 जो बुद्धिमान है, उसके सिर में आंखें रहती हैं, परन्तु मूर्ख अंधिक्कारने में चलता है; तौभी मैं ने जान लिया कि दोनोंकी दशा एक सी होती है। 15 तब मैं ने मन में कहा, जैसी मूर्ख की दशा होगी, वैसी ही मेरी भी होगी; फिर मैं क्योंअधिक बुद्धिमान हुआ? और मैं ने मन में कहा, यह भी व्यर्य ही है। 16 क्योंकि ने तो बुद्धिमान का और न मूर्ख का स्मरण सर्वदा बना रहेगा, परन्तु भविष्य में सब कुछ बिसर जाएगा। 17 बुद्धिमान क्योंकर मूर्ख के समान मरता है! इसलिथे मैं ने अपके जीवन से घृणा की, क्योंकि जो काम संसार में किया जाता है मुझे बुरा मालूम हुआ; क्योंकि सब कुछ व्यर्य और वायु को पकड़ना है। 18 मैं ने अपके सारे परिश्र्म के प्रतिफल से जिसे मैं ने धरती पर किया या घृणा की, क्योंकि अवश्य है कि मैं उसका फल उस मनुष्य के लिथे छोड़ जाऊं जो मेरे बाद आएगा। 19 यह कौन जानता है कि वह मनुष्य बुद्धिमान होगा वा मूर्ख? तौभी धरती पर जितना परिश्र्म मैं ने किया, और उसके लिथे बुद्धि प्रयोग की उस सब का वही अधिक्कारनेी होगा। यह भी व्यर्य ही है। 20 तब मैं अपके मन में उस सारे परिश्र्म के विषय जो मैं ने धरती पर किया या निराश हुआ, 21 क्योंकि ऐसा मनुष्य भी है, जिसका कार्य परिश्र्म और बुद्धि और ज्ञान से होता है और सफल भी होता है, तौभी उसको ऐसे मनुष्य के लिथे छोड़ जाना पड़ता है, जिस ने उस में कुछ भी परिश्र्म न किया हो। यह भी व्यर्य और बहुत ही बुरा है। 22 मनुष्य जो धरती पर मन लगा लगाकर परिश्र्म करता है उस से उसको क्या लाभ होता है? 23 उसके सब दिन तो दु:खोंसे भरे रहते हैं, और उसका काम खेद के साय होता है; रात को भी उसका मन चैन नहीं पाता। यह भी व्यर्य ही है। 24 मनुष्य के लिथे खाने-पीने और परिश्र्म करते हुए अपके जीव को सुखी रखने के सिवाय और कुछ भी अच्छा नहीं। मैं ने देखा कि यह भी परमेश्वर की ओर से मिलता है। 25 क्योंकि खाने-पीने और सुख भोगने में मुझ से अधिक समर्य कौन है? 26 जो मनुष्य परमेश्वर की दृष्टि में अच्छा है, उसको वह बुद्धि और ज्ञान और आनन्द देता है; परन्तु पापी को वह दु:खभरा काम ही देता है कि वह उसका देने के लिथे संचय करके ढेर लगाए जो परमेश्वर की दृष्टि में अच्छा हो। यह भी व्यर्य और वायु को पकड़ना है।।

3

1 हर एक बात का एक अवसर और प्रत्थेक काम का, जो आकाश के नीचे होता है, एक समय है। 2 जन्म का समय, और मरन का भी समय; बोने का समय; और बोए हुए को उखाड़ने का भी समय है; 3 घात करने का समय, और चंगा करने का भी समय; ढा देने का समय, और बनाने का भी समय है; 4 रोने का समय, और हंसने का भी समय; छाती पीटने का समय, और नाचने का भी समय है; 5 पत्यर फेंकने का समय, और पत्यर बटोरने का भी समय; गल लगाने का समय, और गल लगाने से रूकने का भी समय है; 6 ढूंढ़ने का समय, और खो देने का भी समय; बचा रखने का समय, और फेंक देने का भी समय है; 7 फाड़ने का समय, और सीने का भी समय; चुप रहने का समय, और बोलने का भी समय है; 8 प्रेम का समय, और बैर करने का भी समय; लड़ाई का समय, और मेल का भी समय है। 9 काम करनेवाले को अधिक परिश्र्म से क्या लाभ होता है? 10 मैं ने उस दु:खभरे काम को देखा है जो परमेश्वर ने मनुष्योंके लिथे ठहराया है कि वे उस में लगे रहें। 11 उस ने सब कुछ ऐसा बनाया कि अपके अपके समय पर वे सुन्दर होते है; फिर उस ने मनुष्योंके मन में अनादि-अनन्त काल का ज्ञान उत्पन्न किया है, तौभी काल का ज्ञान उत्पन्न किया है, वह आदि से अन्त तक मनुष्य बूफ नहीं सकता। 12 मैं ने जान लिया है कि मनुष्योंके लिथे आनन्द करने और जीवन भर भलाई करने के सियाव, और कुछ भी अच्छा नहीं; 13 और यह भी परमेश्वर का दान है कि मनुष्य खाए-पीए और अपेन सब परिश्र्म में सुखी रहे। 14 मैं जानता हूं कि जो कुछ परमेश्वर करता है वह सदा स्यिर रहेगा; न तो उस में कुछ बढ़ाया जा सकता है और न कुछ घटाया जा सकता है; परमेश्वर एसा इसलिथे करता है कि लोग उसका भय मानें। 15 जो कुछ हुआ वह इस से पहिले भी हो चुका; जो होनेवाला है, वह हो भी चुका है; और परमेश्वर बीती हुई बात को फिर पूछता है। 16 फिर मैं ने संसार में क्या देखा कि न्याय के स्यान में दुष्टता होती है, और धर्म के स्यान में भी दुष्टता होती है। 17 मैं ने मन में कहा, परमेश्वर धर्मी और दुष्ट दोनोंका न्याय करेगा, क्योंकि उसके यहां एक एक विषय और एक एक काम का समय है। 18 मैं ने मन में कहा कि यह इसलिथे होता है कि परमेश्वर मनुष्योंको जांचे और कि वे देख सकें कि वे पशु-समान हैं। 19 क्योंकि जैसी मनुष्योंकी वैसी ही पशुओं की भी दशा होती है; दोनोंकी वही दशा होती है, जैसे एक मरता वैसे ही दूसरा भी मरता है। सभोंकी स्वांस एक सी है, और मनुष्य पशु से कुछ बढ़कर नहीं; सब कुछ व्यर्य ही है। 20 सब एक स्यान मे जाते हैं; सब मिट्टी से बने हैं, और सब मिट्टी में फिर मिल जाते हैं। 21 क्या मनुष्य का प्राण ऊपर की ओर चढ़ता है और पशुओं का प्राण नीचे की ओर जाकर मिट्टी में मिल जाता है? कौन जानता है? 22 सो मैं ने यह देखा कि इस से अधिक कुछ अच्छा नहीं कि मनुष्य अपके कामोंके आनन्दित रहे, क्योंकि उसका भाग्य यही है; कौन उसके पीछे होनेवाली बातोंको देखने के लिथे उसको लौटा लाएगा?

4

1 तब मैं ने वह सब अन्धेर देखा जो संसार में होता है। और क्या देखा, कि अन्धेर सहनेवालोंके आंसू बह रहे हैं, और उनको कोई शान्ति देनेवाला नहीं! अन्धेरे करनेवालोंके हाथ में शक्ति यी, परन्तु उनको कोई शान्ति देनेवाला नहीं या। 2 इसलिथे मैं ने मरे हुओं को जो मर चुके हैं, उन जीवतोंसे जो अब तक जीवित हैं अधिक सराहा; 3 वरन उन दोनोंसे अधिकर सुभागी वह है जो अब तक हुआ ही नहीं, न थे बुरे काम देखे जो संसार में होते हैं।। 4 तब में ने सब परिश्र्म के काम और सब सफल कामोंको देखा जो लोग अपके पड़ोसी से जलन के कारण करते हैं। यह भी व्यर्य और मन का कुढ़ना है।। 5 मूर्ख छाती पर हाथ रखे रहता और अपना मांस खाता है। 6 चैन के साय एक मुट्ठर एप उसे मुट्ठियोंसे अच्छा है, जिनके साय परिश्र्म और मन का कुढ़ना हो।। 7 फिर मैं ने धरती पर यह भी व्यर्य बात देखी। 8 कोई अकेला रहता और उसका कोई नहीं है; न उसके बेटा है, न भाई है, तौभी उसके परिश्र्म का अन्त नहीं होता; न उसकी आंखें धन से सन्तुष्ट होती हैं, और न वह कहता है, मैं किस के लिथे परिश्र्म करता और अपके जीवन को सुखरहित रखता हूं? यह भी व्यर्य और निरा दु:खभरा काम है। 9 एक से दो अच्छे हैं, क्योंकि उनके परिश्र्म का अच्छा फल मिलता है। 10 क्योंकि यदि उन में से एक गिरे, तो दूसरा उसको उठाएगा; परन्तु हाथ उस पर जो अकेला होकर गिरे और उसका कोई उठानेवाला न हो। 11 फिर यदि दो जन एक संग सोए तो वे गर्म रहेंगे, परन्तु कोई अकेला क्योंकर गर्म हो सकता है? 12 यदि कोई अकेले पर प्रबल हो तो हो, परन्तु दो उसका साम्हना कर सकेंगे। जो डोरी तीन तागे से बटी हो वह जल्दी नहीं टूटती।। 13 बुद्धिमान लड़का दरिद्र होन पर भी ऐसे बूढ़े और मूर्ख राजा से अधिक उत्तम है जो फिर सम्मति ग्रहण न करे, 14 चाहे वह उसके राज्य में धनहीन उत्पन्न हुआ या बन्दीगृह से निकलकर राजा हुआ हो। 15 मैं ने सब जीवतोंको जो धरती पर चलते फिरते हैं देखा कि वे उस दूसरे लड़के के संग हो लिथे हैं जो उनका स्यान लेने के लिथे खड़ा हुआ। 16 वे सब लोग अनगिनित थे जिन पर वह प्रधान हुआ या। तौभी भविष्य में होनेवाले लोग उसके कारण आनन्दित न होंगे। नि:सन्देह यह भी व्यर्य और मन का कुढ़ना है।।

5

1 जब तू परमेश्वर के भवन में जाए, तब सावधानी से चलना; सुनने के लिथे समीप जाना मूर्खोंके बलिदान चढ़ाने से अच्छा है; क्योंकि वे नहीं जानते कि बुरा करते हैं। 2 बातें करने में उतावली न करना, और न अपके मन से कोई बात उतावली से परमेश्वर के साम्हने निकालना, क्योंकि परमेश्वर स्वर्ग में हैं और तू पृय्वी पर है; इसलिथे तेरे वचन योड़े ही हों।। 3 क्योंकि जैसे कार्य की अधिकता के कारण स्वप्न देखा जाता है, वैसे ही बहुत सी बातोंका बोलनेवाला मूर्ख ठहरता है। 4 जब तू परमेश्वर के लिथे मन्नत माने, तब उसके पूरा करने में विलम्ब न करना; क्यांकि वह मूर्खोंसे प्रसन्न नहीं होता। जो मन्नत तू ने मानी हो उसे पूरी करना। 5 मन्नत मानकर पूरी न करने से मन्नत का न मानना ही अच्छा है। 6 कोई वचन कहकर अपके को पाप में ने फंसाना, और न ईश्वर के दूत के साम्हने कहना कि यह भूल से हुआ; परमेश्वर क्योंतेरा बोल सुनकर अप्रसन्न हो, और तेरे हाथ के कार्योंको नष्ट करे? 7 क्योंकि स्वप्नोंकी अधिकता से व्यर्य बातोंकी बहुतायत होती है: परन्तु तू परमेश्वर को भय मानना।। 8 यदि तू किसी प्रान्त में निर्धनोंपर अन्धेर और न्याय और धर्म को बिगड़ता देखे, तो इस से चकित न होना; क्योंकि एक अधिक्कारनेी से बड़ा दूसरा रहता है जिसे इन बातोंकी सुधि रहती है, और उन से भी ओर अधिक बड़े रहते हैं। 9 भूमि की उपज सब के लिथे है, वरन खेती से राजा का भी काम निकलता है। 10 जो रूपके से प्रीति रखता है वह रूपके से तृप्त न होगा; और न जो बहुत धन से प्रीति रखता है, लाभ से: यह भी व्यर्य है। 11 जब सम्पत्ति बढ़ती है, तो उसके खानेवाले भी बढ़ते हैं, तब उसके स्वामी को इसे छोड़ और क्या लाभ होता है कि उस सम्पत्ति को अपक्की आंखोंसे देखे? 12 परिश्र्म करनेवाला चाहे योड़ा खाए, या बहुत, तौभी उसकी नींद सुखदाई होती है; परन्तु धनी के धन के बढ़ने के कारण उसको नींद नहीं आती। 13 मैं ने धरती पर एक बड़ी बुरी बला देखी है; अर्यात्‌ वह धन जिसे उसके मालिक ने अपक्की ही हानि के लिथे रखा हो, 14 और वह किसी बुरे काम में उड़ जाता है; और उसके घर में बेटा उत्पन्न होता है परन्तु उसके हाथ मे कुछ नही रहता। 15 जैसा वह मां के पेट से निकला वैसा ही लौट जाएगा; नंगा ही, जैसा आया या, और अपके परिश्र्म के बदले कुछ भी न पाएगा जिसे वह अपके हाथ में ले जा सके। 16 यह भी एक बड़ी बला है कि जैसा वह आया, ठीक वैसा ही वह जाएगा; उसे उस व्यर्य परिश्र्म से और क्या लाभ है? 17 केवल इसके कि उस ने जीवन भर बेचैनी से भोजन किया, और बहुत ही दु:खित और रोगी रहा और क्रोध भी करता रहा? 18 सुन, जो भली बात मैं ने देखी है, वरन जो उचित है, वह यह कि मनुष्य खाए और पीए और अपके परिश्र्म से जो वह धरती पर रिता है, अपक्की सारी आयु भर जो परमेश्वर ने उसे दी है, सुखी रहे: क्योंकि उसका भाग यही है। 19 वरन हर एक मनुष्य जिसे परमेश्वर ने धन सम्पत्ति दी हो, और उन से आनन्द भोगने और उस में से अपना भाग लेने और परिश्र्म करते हुए आनन्द करने को शक्ति भी दी हो- यह परमेश्वर का वरदान है। 20 इस जीवन के दिन उसे बहुत स्मरण न रहेंगे, क्योंकि परमेश्वर उसकी सुन सुनकर उसके मन को आनन्दमय रखता है।।

6

1 एक बुराई जो मैं ने धरती पर देखी है, वह मनुष्योंको बहुत भारी लगती है: 2 किसी मनुष्य को परमेश्वर धन सम्पत्ति और प्रतिष्ठा यहां तक देता है कि जो कुछ उसका मन चाहता है उसे उसकी कुछ भी घटी नहीं होती, तौभी परमश्ेवर उसको उस में से खाने नहीं देता, कोई दूसरा की उसे खाता है; यह व्यर्य और भयानक दु:ख है। 3 यदि किसी पुरूष के सौ पुत्र हों, और वह बहुत वर्ष जीवित रहे और उसकी आयु बढ़ जाए, परन्तु न उसको प्राण प्रसन्न रहे और न उसकी अन्तिम क्रिया की जाए, तो मैं कहता हूं कि ऐसे मनुष्य से अधूरे समय का जन्मा हुआ बच्चा उत्तम है। 4 क्योंकि वह व्यर्य ही आया और अन्धेरे में चला गया, ओर उसका नाम भी अन्धेरे में छिप गया; 5 और न सूर्य को देखा, न किसी चीज को जानने पाया; तौभी इसको उस मनुष्य से अधिक चैन मिला। 6 हां चाहे वह दो हजार वर्ष जीवित रहे, और कुछ सुख भोगने न पाए, तो उसे क्या? क्या सब के सब एक ही स्यान में नहीं जाते? 7 मनुष्य का सारा परिश्र्म उसके पेट के लिथे होता है तौभी उसका मन नहीं भरता। 8 जो बुद्धिमान है वह मूर्ख से किस बात में बढ़कर है? और कंगाल जो यह जानता है कि इस जीवन में किस प्रकार से चलना चाहिथे, वह भी उस से किस बात में बढ़कर है? 9 आंखोंसे देख लेना मन की चंचलता से उत्तम है: यह भी व्यर्य और मन का कुढना है। 10 जो कुछ हुआ है उसका नाम युग के आरम्भ से रखा गया है, और यह प्रगट है कि वह आदमी है, कि वह उस से जो उस से अधिक शक्तिमान है फगड़ा नहीं कर सकता है। 11 बहुत सी ऐसी बातें हैं जिनके कारण जीवन और भी व्यर्य होता है तो फिर मनुष्य को क्या लाभ? 12 क्योंकि मनुष्य के झणिक व्यर्य जीवन में जो वह परछाई की नाई बिताता है कौन जानता है कि उसके लिथे अच्छा क्या है? क्योंकि मनुष्य को कौन बता सकता है कि उसके बाद दुनिया में क्या होगा?

7

1 अच्छा नाम अनमोल इत्र से और मृत्यु का दिन जन्म के दिन से उत्तम है। 2 जेवनार के घर जाने से शोक ही के घर जाना उत्तम है; क्योंकि सब मनुष्योंका अन्त यही है, और जो जीवित है वह मन लगाकर इस पर सोचेगा। 3 हंसी से खेद उत्तम है, क्योंकि मुंह पर के शोक से मन सुधरता है। 4 बुद्धिमानोंका मन शोक करनेवालोंके घर की ओर लगा रहता है परन्तु मूर्खोंका मन आनन्द करनेवालोंके घर लगा रहता है। 5 मूर्खोंके गीत सुनने से बुद्धिमान की घुड़की सुनना उत्तम है। 6 क्योंकि मूर्ख की हंसी हांडी के नीचे जलते हुए कांटो ही चरचराहट के समान होती है; यह भी व्यर्य है। 7 निश्चय अन्धेर से बुद्धिमान बावला हो जाता है; और घूस से बुद्धि नाश होती है। 8 किसी काम के आरम्भ से उसका अन्त उत्तम है; और धीरजवन्त पुरूष गर्वी से उत्तम है। 9 अपके मन में उतावली से क्रोधित न हो, क्योंकि क्रोध मूर्खोंही के ह्रृदय में रहता है। 10 यह न कहना, बीते दिन इस से क्योंउत्तम थे? क्योंकि यह तू बुद्धिमानी से नहीं पूछता। 11 बुद्धि बपौती के साय अच्छी होती है, वरन जीवित रहनेवालोंके लिथे लाभकारी है। 12 क्योंकि बुद्धि की आड़ रूपके की आड़ का काम देता है; परन्तु ज्ञान की श्रेष्टता यह है कि बुद्धि से उसके रखनेवालोंके प्राण की रझा होती है। 13 परमेश्वर के काम पर दृष्टि कर; जिस वस्तु को उस ने टेढ़ा किया हो उसे कौन सीधा कर सकता है? 14 सुख के दिन सुख मान, और दु:ख के दिन सोच; क्योंकि परमेश्वर ने दोनोंको एक ही संग रखा है, जिस से मनुष्य अपके बाद होनेवाली किसी बात को न बूफ सके। 15 अपके व्यर्य जीवन में मैं ने यह सब कुछ देखा है; कोई धर्मी अपके धर्म का काम करते हुए नाश हो जाता है, और दुष्ट बुराई करते हुए दीर्घायु होता है। 16 अपके को बहुत धर्मी न बना, और न अपके को अधिक बुद्धिमान बना; तू क्योंअपके की नाश का कारण हो? 17 अत्यन्त दुष्ट भी न बन, और न मूर्ख हो; तू क्योंअपके समय से पहिले मरे? 18 यह अच्छा है कि तू इस बात को पकड़े रहे; ओर उस बात पर से भी हाथ न उठाए; क्योंकि जो परमेश्वर का भय मानता है वह इन सब कठिनाइयोंसे पार जो जाएगा।। 19 बुद्धि ही से नगर के दस हाकिमोंकी अपेझा बुद्धिमान को अधिक सामर्य प्राप्त होती है। 20 नि:सन्देह पृय्वी पर कोई ऐसा धर्मी मनुष्य नहीं जो भलाई ही करे और जिस से पाप न हुआ हो।। 21 जितनी बातें कही जाएं सब पर कान न लगाना, ऐसा न हो कि तू सुने कि तेरा दास तुझी को शाप देता है; 22 क्योंकि तू आप जानता है कि तू ने भी बहुत बेर औरोंको शाप दिया है।। 23 यह सब मैं ने बुद्धि से जांच लिया है; मैं ने कहा, मैं बुद्धिमान हो जाऊंगा; परन्तु यह मुझ से दूर रहा। 24 वह जो दूर और अत्यन्त गहिरा है, उसका भेद कौन पा सकता है? 25 मैं ने अपना मन लगाया कि बुद्धि के विषय में जान लूं; कि खोज निकालूं और उसका भेद जानूं, और कि दुष्टता की मूर्खता और मूर्खता जो निरा बावलापन है जानूं। 26 और मैं ने मृत्यु से भी अधिक दृ:खदाई एक वस्तु पाई, अर्यात्‌ वह स्त्री जिसका मन फन्दा और जाल है और जिसके हाथ हयकडिय़ां है; (जिस पुरूष से परमेश्वर प्रसन्न है वही उस से बचेगा, परन्तु पापी उसका शिकाल होगा) 27 देख, उपकेशक कहता है, मैं ने ज्ञान के लिथे अलग अलग बातें मिलाकर जांचीं, और यह बात निकाली, 28 जिसे मेरा मन अब तक ढूंढ़ रहा है, परन्तु नहीं पाया। हजार में से मैं ने एक पुरूष को पाया, परन्तु उन में एक भी स्त्री नहीं पाई। 29 देखो, मैं ने केवल यह बात पाई है, कि परमेश्वर ने मनुष्य को सीधा बनाया, परन्तु उन्होंने बहुत सी युक्तियां निकाली हैं।।

8

1 बुद्धिमान के तुल्य कौन है? और किसी बात का अर्य कौन लगा सकता है? मनुष्य की बुद्धि के कारण उसका मुख चमकता, और उसके मुचा की कठोरता दूर हो जाती है। 2 मैं तुझे सम्मति देता हूं कि परमेश्वर की शपय के कारण राजा की आज्ञा मान। 3 राजा के साम्हने से उतावली के साय न लौटना और न बुरी बात पर हठ करना, क्योंकि वह जो कुछ चाहता है करता है। 4 क्योंकि राजा के वचन में तो सामर्य्य रहती है, और कौन उस से कह सकता है कि तू क्या करता है? 5 जो आज्ञा को मानता है, वह जोखिम से बचेगा, और बुद्धिमान का मन समय और न्याय का भेद जानता है। 6 क्योंकि हर एक विषय का समय और नियम होता है, यद्यिप मनुष्य का दु:ख उसके लिथे बहुत भारी होता है। 7 वह नहीं जानता कि क्या होनेवाला है, और कब होगा? यह उसको कौन बता सकता है? 8 ऐसा कोई मनुष्य नहीं जिसका वश प्राण पर चले कि वह उसे निकलते समय रोक ले, और न कोई मृत्यु के दिन पर अधिक्कारनेी होता है; और न उसे लड़ाई से छृट्टी मिल सकती है, और न दुष्ट लोग अपक्की दुष्टता के कारण बच सकते हैं। 9 जितने काम धरती पर किए जाते हैं उन सब को ध्यानपूर्वक देखने में यह सब कुछ मैं ने देखा, और यह भी देखा कि एक मनुष्य दूसरे मनुष्य पर अधिक्कारनेी होकर अपके ऊपर हानि लाता है।। 10 तब मैं ने दुष्टोंको गाढ़े जाते देखा; अर्यात्‌ उनकी तो कब्र बनी, परन्तु जिन्होंने ठीक काम किया या वे पवित्रस्यान से निकल गए और उनका स्मरण भी नगर में न रहा; यह भी व्यर्य ही है। 11 बुरे काम के दण्ड की आज्ञा फुर्ती से नहीं दी जाती; इस कारण मनुष्योंका मन बुरा काम करने की इच्छा से भरा रहता है। 12 चाहे पापी सौ बार पाप करे अपके दिन भी बढ़ाए, तौभी मुझे निश्चय है कि जो परमेश्वर से डरते हैं और अपके तई उसको सम्मुख जानकर भय से चलते हैं, उनका भला ही होगा; 13 परन्तु दुष्ट का भला नहीं होने का, और न उसकी जीवनरूपी छाया लम्बी होने पाएगी, क्योंकि वह परमेश्वर का भय नहीं मानता।। 14 एक व्यर्य बात पृय्वी पर होती है, अर्यात्‌ ऐसे धर्मी हैं जिनकी वह दशा होती है जो दुष्टोंकी होनी चाहिथे, और ऐसे दुष्ट हैं जिनकी वह दशा होती है हो धमिर्योंकी होनी चाहिथे। मैं ने कह कि यह भी व्यर्य ही है। 15 तब मैं ने आनन्द को सराहा, क्योंकि सूर्य के नीचे मनुष्य के लिथे खाने-पीने और आनन्द करने को छोड़ और कुछ भी अच्छा नहीं, क्योंकि यही उसके जीवन भर जो परमेश्वर उसके लिथे धरती पर ठहराए, उसके परिश्र्म में उसके संग बना रहेगा।। 16 जब मैं ने बुद्धि प्राप्त करने और सब काम देखने के लिथे जो पृय्वी पर किए जाते हैं अपना मन लगाया, कि कैसे मनुष्य रात-दिन जागते रहते हैं; 17 तब मैं ने परमेश्वर का सारा काम देखा जो सूर्य के नीचे किया जाता है, उसकी याह मनुष्य नहीं पा सकता। चाहे मनुष्य उसकी खोज में कितना भी परिश्र्म करे, तौभी उसको न जान पाएगा; और यद्यिप बुद्धिमान कहे भी कि मैं उसे समझूंगा, तौभी वह उसे न पा सकेगा।।

9

1 यह सब कुछ मैं ने मन लगाकर विचारा कि इन सब बातोंका भेद पाऊं, कि किस प्रकार धर्मी और बुद्धिमान लाग और उनके काम परमेश्वर के हाथ में हैं; मनुष्य के आगे सब प्रकार की बातें हैं परन्तु वह नहीं जानता कि वह प्रेम है व बैर। 2 सब बातें सभोंको एक समान होती है, धर्मी हो या दुष्ट, भले, शुद्ध या अशुद्ध, यज्ञ करने और न करनेवाले, सभोंकी दशा एक ही सी होती है। जैसी भले मनुष्य की दशा, वैसी ही पापी की दशा; जैसी शपय खानेवाले की दशा, वैसी ही उसकी जो शपय खाने से डरता है। 3 जो कुछ सूर्य के नीचे किया जाता है उस में यह एक दोष है कि सब लोगोंकी एक सी दशा होती है; और मनुष्योंके मनोंमें बुराई भरी हुई है, और जब तक वे जीवित रहते हैं उनके मन में बावलापन रहता है, और उसके बाद वे मरे हुओं में जा मिलते हैं। 4 उसको परन्तु जो सब जीवतोंमें है, उसे आशा है, क्योंकि जीवता कुत्ता मरे हुए सिंह से बढ़कर है। 5 क्योंकि जीवते तो इतना जानते हैं कि वे मरेंगे, परन्तु मरे हुए कुछ भी नहीं जानते, और न उनको कुछ और बदला मिल सकता है, क्योंकि उनका स्मरण मिट गया है। 6 उनका प्रेम और उनका बैर और उनकी डाह नाश हो चुकी, और अब जो कुछ सूर्य के नीचे किया जाता है उस में सदा के लिथे उनका और कोई भाग न होगा।। 7 अपके मार्ग पर चला जा, अपक्की रोटी आनन्द से खाया कर, और मन में सुख मानकर अपना दाखमधु पिया कर; क्योंकि परमेश्वर तेरे कामोंसे प्रसन्न हो चुका है।। 8 तेरे वस्त्र सदा उजले रहें, और तेरे सिर पर तेल की घटी न हो।। 9 अपके व्यर्य जीवन के सारे दिन जो उस ने सूर्य के नीचे तेरे लिथे ठहराए हैं अपक्की प्यारी पत्नी के संग में बिताना, क्योंकि तेरे जीवन और तेरे परिश्र्म में जो तू सूर्य के नीचे करता है तेरा यही भाग है। 10 जो काम तुझे मिले उसे अपक्की शक्ति भर करना, क्योंकि अधोलोक में जहां तू जानेवाला है, न काम न युक्ति न ज्ञान और न बुद्धि है।। 11 फिर मैं ने धरती पर देखा कि न तो दौड़ में वेग दौड़नेवाले और न युद्ध में शूरवीर जीतते; न बुद्धिमान लोग रोटी पाते न समझवाले धन, और न प्रवीणोंपर अनुग्रह होता है, वे सब समय और संयोग के वश में है। 12 क्योंकि मनुष्य अपना समय नहीं जानता। जैसे मछलियां दुखदाई जाल में बफती और चिडिय़े फन्दे में फंसती हैं, वैसे ही मनुष्य दुखदाई समय में जो उन पर अचानक आ पड़ता है, फंस जाते हैं।। 13 मैं ने सूर्य के नीचे इस प्रकार की बुद्धि की बात भी देखी है, जो मुझे बड़ी जान पक्की। 14 एक छोटा सा नगर या, जिस में योड़े ही लोग थे; और किसी बड़े राजा ने उस पर चढ़ाई करके उसे घेर लिया, और उसके विरूद्ध बड़े बड़े घुस बनवाए। 15 परन्तु उस में एक दरिद्र बुद्धिमान पुरूष पाया गया, और उस ने उस नगर को अपक्की बुद्धि के द्वारा बचाया। तौभी किसी ने उस दरिद्र का स्मरण न रखा। 16 तब मैं ने कहा, यद्यपि दरिद्र की बुद्धि तुच्छ समझी जाती है और उसका वचन कोई नहीं सुनता तौभी पराक्रम से बुद्धि उत्तम है। 17 बुद्धिमानोंके वचन जो धीमे धीमे कहे जाते हैं वे मूर्खोंके बीच प्रभुता करनेवाले के चिल्ला चिल्लाकर कहने से अधिक सुने जाते हैं। 18 लड़ाई के हयियारोंसे बुद्धि उत्तम है, परन्तु एक पापी बहुत भलाई नाश करता है।।

10

1 मार हुई मक्खियोंके कारण गन्धी का तेल सड़ने और बसाने लगता है; और योड़ी सी मूर्खता बुद्धि और प्रतिष्ठा को घटा देती है। 2 बुद्धिमान का मन उचित बात की ओर रहता है परन्तु मूर्ख का मन उसके विपक्कीत रहता है। 3 वरन जब मूर्ख मार्ग पर चलता है, तब उसकी समझ काम नहीं देती, अैर वह सब से कहता है, मैं मूर्ख हूं।। 4 यदि हाकिम का क्रोध तुझ पर भड़के, तो अपना स्यान न छोड़ना, क्योंकि धीरज धरने से बड़े बड़े पाप रूकते हैं।। 5 एक बुराई है जो मैं ने सूर्य के नीचे देखी, वह हाकिम की भूल से होती है: 6 अर्यात्‌ मूर्ख बड़ी प्रतिष्ठा के स्यानोंमें ठहराए जाते हैं, और धनवाल लोग नीचे बैठते हैं। 7 मैं ने दासोंको घोड़ोंपर चढ़े, और रईसोंको दासोंकी नाई भूमि पर चलते हुए देखा है।। 8 जो गड़हा खोदे वह उस में गिरेगा और जो बाड़ा तोड़े उसको सर्प डसेगा। 9 जो पत्यर फोड़े, वह उन से घायल होगा, और जो लकड़ी काटे, उसे उसी से डर होगा। 10 यदि कुल्हाड़ा योया हो और मनुष्य उसकी धार को पैनी न करे, तो अधिक बल लगाना पकेगा; परन्तु सफल होने के लिथे बुद्धि से लाभ होता है। 11 यदि मंत्र से पहिले सर्प डसे, तो मंत्र पढ़नेवाले को कुछ भी लाभ नहीं।। 12 बुद्धिमान के वचनोंके कारण अनुग्रह होता है, परन्तु मूर्ख अपके वचनोंके द्वारा नाश होते हैं। 13 उसकी बात का आरम्भ मूर्खता का, और उनका अन्त दुखदाई बावलापन होता है। 14 मूर्ख बहुत बातें बढ़ाकर बोलता है, तौभी कोई मनुष्य नहीं जानता कि क्या होगा, और कौन बता सकता है कि उसके बाद क्या होनेवाला है? 15 मूर्ख को परिश्र्म से यकावट ही होती है, यहां तक कि वह नहीं जानता कि नगर को कैसे जाए।। 16 हे देश, तुझ पर हाथ जब तेरा राजा लड़का है और तेरे हाकिम प्रात:काल भोज करते हैं! 17 हे देश, तू धन्य है जब तेरा राजा कुलीन है; और तेरे हाकिम समय पर भोज करते हैं, और वह भी मतवाले होने को नहीं, वरन्त बल बढ़ाने के लिथे! 18 आलस्य के कारण छत की कडिय़ां दब जाती हैं, और हाथोंकी सुस्ती से घर चूता है। 19 भोज हंसी खुशी के लिथे किया जाता है, और दाखमधु से जीवन को आनन्द मिलता है; और रूपयोंसे सब कुछ प्राप्त होता है। 20 राजा को मन में भी शाप न देना, न धनवान को अपके शयन की कोठरी में शाप देना; क्योंकि कोई आकाश का पक्की तेरी वाणी को ले जाएगा, और कोई उड़ानेवाला जन्तु उस बात को प्रगट कर देगा।।

11

1 अपक्की रोटी जल के ऊपर डाल दे, क्योंकि बहुत दिन के बाद तू उसे फिर पाएगा। 2 सात वरन आठ जनोंको भी भाग दे, क्योंकि तू नहीं जानता कि पृय्वी पर क्या विपत्ति आ पकेगी। 3 यदि बादल जल भरे हैं, तब उसका भूमि पर उण्डेल देते हैं; और वृझ चाहे दक्खिन की ओर गिरे या उत्तर की ओर, तौभी जिस स्यान पर वृझ गिरेगा, वहीं पड़ा रहेगा। 4 जो वायु को ताकता रहेगा वह बीज बोने न पाएगा; और जो बादलोंको देखता रहेगा वह लवने न पाएगा। 5 जैसे तू वायु के चलने का मार्ग नहीं जानता और किस रीति से गर्भवती के पेट में हड्डियां बढ़ती हैं, वैसे ही तू परमेश्वर का काम नहीं जानता जो सब कुछ करता है।। 6 भोर को अपना बीज बो, और सांफ को भी अपना हाथ न रोक; क्योंकि तू नहीं जानता कि कौन सुफल होगा, यह वा वह वा दोनोंके दोनोंअच्छे निकलेंगे। 7 उजियाला मनभावना होता है, और धूप के देखने से आंखोंको सुख होता है। 8 यदि मनुष्य बहुत वर्ष जीवित रहे, तो उन सभोंमें आनन्दित रहे; परन्तु यह स्मरण रखे कि अन्धिक्कारने से दिन भी बहुत होंगे। जो कुछ होता है वह व्यर्य है।। 9 हे जवान, अपक्की जवानी में आनन्द कर, और अपक्की जवानी के दिनोंके मगन रह; अपक्की मनमानी कर और अपक्की आंखोंकी दृष्टि के अनुसार चल। परन्तु यह जान रख कि इन सब बातोंके विषय में परमेश्वर तेरा न्याय करेगा।। 10 अपके मन से खेद और अपक्की देह से दु:ख दूर कर, क्योंकि लड़कपन और जवानी दोनो व्यर्य है।

12

1 अपक्की जवानी के दिनोंमें अपके सृजनहार को स्मरण रख, इस से पहिले कि विपत्ति के दिन और वे वर्ष आएं, जिन में तू कहे कि मेरा मन इन में नहीं लगाता। 2 इस से पहिले कि सूर्य और प्रकाश और चन्द्रमा और तारागण अंधेरे हो जाएं, और वर्षा होने के बादल फिर घिर जाएं; 3 उस समय घर के पहरूथे कांपेंगे, और बलवन्त फुक जायंगे, और पिसनहारियां योड़ी रहने के कारण काम छोड़ देंगी, और फरोखोंमें से देखनेवालियां अन्धी हो जाएगी, 4 और सड़क की ओर के किवाड़ बन्द होंगे, और चक्की पीसने का शब्द धीमा होगा, और तड़के चिडिय़ा बोलते ही एक उठ जाएगा, और सब गानेवालियोंका शब्द धीमा हो जाएगा। 5 फिर जो ऊंचा हो उस से भय खाया जाएगा, और मार्ग में डरावनी वस्तुएं मानी जाएंगी; और बादाम का पेड़ फूलेगा, और टिड्डी भी भारी लगेगी, और भूख बढ़ानेवाला फल फिर काम न देगा; क्योंकि मनुष्य अपके सदा के घर को जाथेगा, और रोने पीटनेवाले सड़क सड़क फिरेंगे। 6 उस समय चान्दी का तार दो टूकड़े हो जाएगा और सोने का कटोरा टूटेगा; और सोते के पास घड़ा फूटेगा, और कुण्ड के पास रहट टूट जाएगा, 7 जब मिट्टी ज्योंकी त्योंमिट्टी में मिल जाएगी, और आत्मा परमेश्वर के पास जिस ने उसे दिया लौट जाएगी। 8 उपकेशक कहता है, सब व्यर्य ही व्यर्य; सब कुछ व्यर्य है। 9 उपकेशक जो बुद्धिमान या, वह प्रजा को ज्ञान भी सिखाता रहा, और ध्यान लगाकर और पूछपाछ करके बहुत से नीतिवचन क्रम से रखता या। 10 उपकेशक ने मनभावने शब्द खोजे और सीधाई से थे सच्ची बातें लिख दीं।। 11 बुद्धिमानोंके वचन पैनोंके समान होते हैं, और सभाओं के प्रधानोंके वचन गाड़ी हुई कीलोंके समान हैं, क्योंकि एक ही चरवाहे की ओर से मिलते हैं। 12 हे मेरे पुत्र, इन्ही में चौकसी सीख। बहुत पुस्तकोंकी रचना का अन्त नहीं होता, और बहुत पढ़ना देह को यका देता है।। 13 सब कुछ सुना गया; अन्त की बात यह है कि परमेश्वर का भय मान और उसकी आज्ञाओं का पालन कर; क्योंकि मनुष्य का सम्पूर्ण कर्त्तव्य यही है। 14 क्योंकि परमेश्वर सब कामोंऔर सब गुप्त बातोंका, चाहे वे भली होंया बुरी, न्याय करेगा।।